Monday, March 30, 2009

बस का सहयात्री


वह  

रोज इंतजार किया करता था वह मेरा  
डी.टी.सी की बस नम्बर 234 में 
पहनकर काली पेंट और सफेद कमीज़  
लगाकर आँखो पर काला चश्मा 
लेकर साथ अपने एक काला बैग 
चढ़ते ही बस में मेरे 
बैठने की जगह बना दिया करता था  
बतलाता था 
खिलखिलाता था 
यूँ तो शादीशुदा था 
पर बातें बच्चों सी किया करता था
ना जाने कैसे और कहाँ से 
सारे जहान के दुखों की खबर भी रखा करता था 
खड़ा होकर स्टैण्ड से पहले ही 
गेट पर पहुँच जाया करता था
उतर कर स्टैण्ड पर   
छड़ी बैग से निकाल 
सड़क पार किया करता था 
सोचता हूँ तो सिरह उठता हूँ 
कैसे हर पल वह जिया करता था   

Tuesday, March 24, 2009

इस अंधेरी रात के बाद उजली सुबह कब होगी?


रात के एक बजे, एक आदमी कार से उतर कर, पार्किंग के 10 रुपये के लिए, पार्किंग वाले से पुलिस वाला होने का रोब देखाकर तू तू मैं मैं करता हुआ बिना पैसे दिए शान से चला जाता हैं।.............. रात के डेढ़ बजे, उस जगह से चंद कदम दूर एक आदमी आमलेट दो रुपये महँगा होने की वजह से भूख का गला दबा कर चुपचाप चला गया ........... लगभग पौने दो बजे, फिर वही आदमी सिगरेट के लिए यही आता है और सिगरेट लेकर आमलेट वाले के हाथ पर सिक्के रख देता है, आमलेट वाला एक रुपये और माँगता है वह आदमी एक रुपये की जगह सिगरेट ही उसके हाथ पर रख देता है और अपनी तलब को दफनाकर अपने मरीज के पास लौट जाता है.............आज पहली बार लगा कि सिगरेट पीनी ........  ढाई बजे कुछ आदमी बहस करते हुए, धर्मो की लड़ाई में उलझे हैं। पुराने जख़्मों को कुरेद कर अपनी अपनी बातों को सही ठहरा रहे हैं और चीजों का बँटवारा करते हुए ये..... तुम्हारी, ये..... उनकी, ये..... हमारी ............ रात को काट रहे है .........  चार बजे, एक आदमी मृत भाई की लाश के पास पत्थर की मूर्ति सा खड़ा है। पैसे नही है घर ले जाने को ...... पास से गुजरता एक आदमी वजह पूछता है और फिर सारा इंतजाम कर अपनी दिल की मरीज माँ के पास चला जाता है।.......... कभी कभी रातें इतनी लम्बी क्यों हो जाती है?...................पाँच बजे एक परिवार रो रहा है पास खड़े आदमी का मोबाईल बज उठता है 'हट जा ताऊ पाछे ने' ....... दौलत से मोबाईल खरीद लिया पर उसके रखने का शिष्टाचार नही खरीद सका।..................... ( निंदा जी से माफी माँगते हुए) "आओ दोस्तों एक ऐसा भी धर्म लाया जाए जिसमें जिदंगी की लड़ाई में हाँफते इंसानो का होंसला बढ़ाया जाए।"....................

दिल हो तो धरती माँ जैसा, प्यार दे सबको एक बराबर
भले बुरे सब माँ के जाये, फूल और काँटा एक बराबर 
मिट्टी में जो बीज पनपता, धरती के लिए एक बराबर 
कोख न हिंदू, कोख न मुसलिम, जीवन बख़्शे एक बराबर।   

और हाँ कल भगत सिंह की शहादत का दिन था उनकी कुर्बानी को सलाम करते हुए उनकी याद में उन्हीं का शेर।  

हवा में रहेगी मेरे ख़्याल की बिजली, 
ये मुश्ते-ख़ाक है फानी, रहे न रहे। 
                           भगत सिंह 

नोट- यह पोस्ट अपने अनदेखे अनजाने( वैसे थोड़ा देखा, थोड़ा जाना भी है पर थोड़ा ही, पर मुलाकात नही हुई आजतक) दोस्त के लिए। ताऊ की पहेली तो रोज शनिवार को आती है पर यह छौक्कर की पहेली आज के लिए है बस, आपका बताना है वो दोस्त कौन है? सही जवाब देने वाले को ईनाम दिया जाएगा " प्यार भरा शुक्रिया" और हाँ ऊपर दी गई रचना मेरे गुरु श्री चरणदास सिंधू जी के नाटक " किस्सा पंडित कालू कुम्हार" से हैं जोकि "वाणी प्रकाशन" से छपा है।

Saturday, March 14, 2009

मुझे किस किस ने बिगाड़ा और जीवन संवारा।



मैं तो प्रतिदिन यही अनुभव करता हूँ कि मेरे भीतरी और बाहरी जीवन के निर्माण में कितने अगणित व्यक्तियों के श्रम और कृपा का हाथ रहा हैं और इस अनूभूति से उददीत मेरा अंतक:करण कितना छटपटाता है कि मैं कम से कम इतना तो दुनिया को दे संकू जितना मैंने उससे अभी तक लिया है।  - आंइस्टीन 
अभी 8 मार्च को कंचन जी ने एक पोस्ट की थी। जिसे पढ़कर आंइस्टीन जी का यह कथन याद आ गया। कंचन जी ने उस पोस्ट में पूछा था कि " उन तीन पुरुष और तीन महिलाओं का नाम बताईए जिनका आपके व्यक्तित्व निर्माण में बहुत बड़ा हाथ है।" वैसे ये सच में ही बड़ा मुश्किल काम हैं। पर ज्यादा गहराई में ना जाकर बस चंद पल सोचकर जो दिमाग में आया वही लिख रहा हूँ।  

सबसे पहले बेझिक पहला नाम ले सकता हूँ, वो हैं मेरे गुरु चरण दास सिधू जी । जिनसे मैं बहुत प्रभावित रहा हूँ। जिनके बारें में जितना लिखा जाए उतना कम है। पर यहाँ एक चीज का जिक्र करुँग़ा। उन्होंने अपनी एक किताब में कहीं कहा था कि " अगर सैल्फ ऐक्सप्रेशन न मिले, घुटन अंदर से न निकले, दिल की गांठे न खुलें, तो लड़के लड़कियाँ नशे पीने लग जाते हैं। क़ातिल बन जाते हैं। पगला जाते हैं। कट्टरपंथी मौत के फरिशते बन जाते हैं। इसका एक ही इलाज है: आत्म अभिव्यक्ति।" इसी आत्म अभिव्यक्ति की लौ इन्होंने ही जगाई थी मेरे अंदर। दिल में बहुत गुबार होते थे जिन्हें मैं नही निकाल पाता था। लोगों ने मजाक बनाया मेरा। एक यही थे जिन्होंने लिखने के लिए प्रोत्साहित किया। शायद अवसाद में जाने से बचा लिया। उनका सीधा, सादा, नम्र जीवन जीना मुझे हमेशा आकर्षित करता रहा है। आज इनका जन्मदिन भी हैं। और आज के ही दिन मैं इनसे मिला भी था। आज के दिन इस पोस्ट को करने का कारण भी। दूसरा नाम मैं अपने पिता जी का लूँगा। जिन्होंने जिदंगी में लड़ना सिखाया। मुसीबत में भी जीने का ज़ज़्बा बनाए रखना सिखाया। जब भी कभी हमारे घर में कोई मुसीबत आई हमेशा पिता जी ने कहा कि " हाथ नहीं गड़े जमीन में अभी मेरे।" तीसरा नाम मैं एक लड़के का लूँगा जिसका मुझे नाम भी नही पता। पर कुछ पल के लिए आया था मेरी जिदंगी में। वह मुझे एक दिन लाईब्रेरी के बाहर मिला। एक फटी सी कमीज पहने। मेरे पास आकर एक रुपया माँगने लगा शायद उसे बहुत भूख लगी थी और मैंने उसे दो रुपये का सिक्का दे दिया। वह भागकर ब्रेडपीस ले आया और एक रुपया मेरी हथेली पर रखकर, मुझे ईमानदारी का पाठ पढ़ा गया।  वह मुझे बता गया कि भुखमरी और गरीबी में भी ईमानदारी नही मरती। और हम हैं कि ईमानदारी का बस ढोल ही पीटते रहते हैं। उस लड़के पर एक पोस्ट की थी एक सात आठ साल का लड़का और भूख   के नाम से। 

पहला नाम मैं यहाँ अपनी मम्मी जी का लूँगा। जिन्होंने सबसे प्यार करना सिखाया। गिले शिकवे चंद पल के लिए होने चाहिए। आखिर एक इंसान ही तो एक इंसान के काम आता है। "कोई तुम्हारें लिए क्या करता है यह मह्त्वपूर्ण नही हैं बल्कि तुम क्या करते किसी के लिए यह महत्वपूर्ण।" दूसरा नाम एक लड़की का। इस लड़की से भी एक ही बार मिला। उन्होंने बात ही बात में एक बात कही थी कि " अगर भगवान या इंसान तुम्हें दुख देकर अंचभित करें तो तुम भी उस दुख में खुश रह कर उसे अंचभित कर दो। मतलब हमेशा खुश रहो बस।" तीसरा नाम मैं अपनी बेटी का लूँगा। सुनयना ( यह नाम सिधू सर जी ने रखा था हमारी नैना के लिए) जो मुझे यह सिखाती है कि जो चीज जहाँ से उठाओ उसको वही रखों। यह आदत उसे किसने सीखाई मुझे पता नही पर वह मुझे जरुर सिखाती हैं।  

और जाते जाते सिधू सर जी को जन्मदिन की ढेरों मुबारकबाद और शुभकामनाएं देते हुए उनकी एक रचना जो उन्होंने नौवीं या दसवीं जमात में पढते हुए लिखी थी, आप साथियों के लिए प्रस्तुत करना चाहूँगा।  

उठ जाग अंधेरे में से तू, 
तेरा प्रीतम तेरे दिल बसता। 
नहीं स्वर्ग कोई आसमानों में, 
धरती को स्वर्ग बना, बंदे। 
कर ख़त्म ग़ुलामी, बंदर-बाँट, 
बंदे को रब्ब बना,बंदे। 
तू कामगार ही सिर्जनहार, 
क्यों पत्थरों पंडों में फंसता? 

उठ जाग अंधेरे में से तू, 
तेरा प्रीतम तेरे दिल बसता। 
सब भरम भुलावे छोड़ दे अब, 
तू सीधे रस्ते चल, बंदे। 
रब्ब ढूंढने के ढंग बदल गए, 
रब्ब इक दूजे को कह, बंदे। 
क़ादर क़ुदरत क़ुदरत क़ादर,
हर पीर पैग़ंबर है कहता। 


नोट- ऊपर की गई पोस्ट में पाँच लिंक है हरे रंग में, अगर समय हो तो उस लिंक पर क्लिक करके उस पोस्ट को भी पढ सकते हैं। और अपना अमूल्य कमेंट दे सकते है। शुक्रिया। 









Tuesday, March 3, 2009

चल मेरी सखी

दो चार दिन पहले यूँ ही चार लाईने दिमाग में घूम रही थी। हम ठहरें आलसी आदमी, सोचा चलो घूमने दो काहे उन्हें परेशान करें। पर जब संडे के दिन बेटी को चिड़ियाघर घुमाकर आए। तो हम थक गए थे सोचा वो चार लाईने भी घूमते घूमते थक गई होंगी इसलिए अब उन्हें आराम दे देना चाहिए। कागज़ कलम लेकर बैठे तो उन चार लाईनों से इतनी लाईने बनती ही चली गई। फिर नजर मारी तो देखा ये लाईने तो ठीक ठाक बन गई है,फिर दिल नही माना कि इनसे छेड़छाड की जाए। पर दिमाग हिचक रहा था इन्हें पोस्ट करने से। पर दिल है कि माना नहीं। फिर दोनों ने मीटिंग की और प्रस्ताव पारित कर दिया कि यह तुकबंदी पोस्ट कर दी जाए, बिना छेड़छाड़ के। छेड़छाड़ की तो "सखी" नाराज हो जाऐगी। तो साथियों पेश आज की पोस्ट।


चल मेरी सखी

एक आशियाना बनाते हैं।
आ फिर मिलकर तिनके बिनते हैं
अपने हाथों से उसकी नींव रखते हैं।
जहाँ
चमके सूरज की पहली किरणें
खिले फूलों की ढेरों कलियाँ
गूँजे चिडिय़ों की चहचाहटें।
आ मेरी सखी
ऐसा ही एक आशियाना बनाएं।

वहाँ
ना तेरी
ना मेरी
हो हमारी आवाजें।
मैं तुझको चलने की जमीन दूँ
तू मुझको उड़ने का आकाश दे।
तू मेरे सपनों को पानी से सींचे
मै तेरे ख्वाबों में पंख लगाऊँ।
मैं ना खींचू कोई लक्ष्मण रेखा
तू ना डाले बेड़िया।

आ मेरी सखी
ऐसा ही एक आशियाना बनाएं।

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